Saturday 4 October 2014

निष्ठुर

 

                                                

रात ढलते ही पिघलते
इस जिगर ने चीख दी

छोड़ दे ये मोह माया
वैराग्य की अब सीख दी

बंद कर वोह कारखाने
मृदु भावों का जो सृजन करें
छोड़ दे वोह संगठन
जो दूरियाँ उत्पन्न करें

तू हल चला अब इस कदर
कि स्वेद धरती को पिला
अर्जन न रुकने पाये धन का
गर रक्त तेरा ना जला

ले जकड़ कोमल ह्रदय को
प्रस्तर की सक्त ज़ंजीर से
खिन्न अनुताप शोकार्त भावों
का पलायन हो सके

निष्ठुर है हो जा तू सही
अब यूँ अकड़ते वृक्ष सा

तन से लगा पाला जिसे
वोह फल तोह लोभी ले गया
पर ये उदासीन गाछ तो
मदमस्त हो लेहरा रहा

कुछ खड़ी उपरान्त खोने
इक नया फल ला रहा

कुछ खड़ी उपरान्त खोने
इक नया फल ला रहा